आज तुम से मिल सकूँगा था मुझे विश्वास / अज्ञेय
आज तुम से मिल सकूँगा, था मुझे विश्वास!
आज जब कि बबूल पर भी सिरिस-कोमल बौर पलता-
मंजरी की प्यालियों में ओस का मधु-दौर चलता;
खेलती थी विजन में सुरभि मलय की साँस।
उर भरे उल्लास।
प्यार के उन्माद से भर, पंडुकी भी स्वर बदल कर,
सघन पीपल-डाल पर से थी बुलाती प्रणय-सहचर-
छा रहा सब ओर था अनुराग का कलहास।
वह मिलन की प्यास!
कल- झुलसते सुमन-जग में वेदना की हूक होगी,
निरस, श्री-हत तरु-शिखर पर मूक कोकिल-कूक होगी!
खर-निदाघ-ज्वाल में जल जाएगा मधुमास।
झूठ कल ही आस!
कल- जवानी की उमंगें बिखर होंगी धूल जग में-
आज की यह कामना ही चुभेगी बन शूल मग में!
भुवन-भर को माप लेगा काल-डग का व्यास।
प्रलय का आभास!
दूर तुम- हा, दूर तुम- अवसान आया पास,
आज प्रत्यय भी पराजित- मैं नियति का दास!
आज तुम से मिल सकूँगा था मुझे विश्वास।
लाहौर, 1 अगस्त, 1936