आज न जाना जी / अश्विनी कुमार आलोक
बहुत दिनों के बाद मिले हो,
आज न जाना जी,
चले गये जो आज
तो मिलने कभी न आना जी।
गये थे कहकर रोज
लिफाफा लिखकर भेजोगे
मन के सारे तार
हमारे लिए सहेजोगेे
हम हैं कि मर गये
तुम्हें क्या पता ठिकाना जी।
हंस कर ताने देते हैं
सब बचपन के हमजोली
हम मरते जाते हैं उनको
सूझे हंसी ठिठोली
क्या हम ही सबसे मूरख हैं
हमे बताना जी।
ऐसा लगता है जैसे कि
मन में कुछ कटता है
कौन जनम का कोप
आज तक तनिक नहीं घटता है
क्यों अच्छा लगता है
तुमको, यों तड़पाना जी।
आंखों में बरसात रात दिन
जैसे ज्वार हो मन में
ऐसा भी क्या नेह कि
जिससे रहे न अपनेपन में
हम पे क्या गुजरा, ये
कोई और न जाना जी।
चले गये इस बार
खैर, तब यहां नहीं पाओगे
चले गये जो दूर
हमें फिर देख नहीं पाओगे
आज नहीं तोड़ो कसमों को
इन्हें निभाना जी।