Last modified on 5 अगस्त 2009, at 07:06

आज बैठीं कल उड़ेंगी हस्तियाँ / प्रेम भारद्वाज

आज बैठी कल उठेंगी हस्तियाँ
उजड़तीं बसती रहेंगी बस्तियाँ

शर्म से झुक जाएंगी ऊँचाईयाँ
हौंसले से जो उठेंगी पस्तियाँ

वह तो तब था जब नदी कुछ शांत थी
इस दौर में तूफान के क्या किस्तियाँ

दोस्ती में बरगला कर लूट कर
यार कसते भी रहे हैं फब्तियाँ

है तो सब महफ़ूज़ ही अभिलेख में
कौन खोलता पुरानी नस्तियाँ

मरते दम कैसी वसीयत उसने की
हो नहीं पाईं प्रवाहित अस्थियाँ

कब्रगाहों की कहानी एक है
गो मज़ारों पर अलग है तख़्तियाँ

जब तलक आज़ाद थे बेबाक थे
प्रेम बंधन में कहाँ वो मस्तियाँ