भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज मेरे नयन के तारक हुए जलजात देखो! / महादेवी वर्मा
Kavita Kosh से
आज मेरे नयन के तारक हुए जलजात देखो!
अलस नभ के पलक गीले,
कुन्तलों से पोंछ आई;
सघन बादल भी प्रलय के
श्वास से मैं बाँध लाई;
पर न हो निस्पन्दता में चंचला भी स्नात देखो!
मूक प्राणायाम में लय-
हो गई कम्पन अनिल की;
एक अचल समाधि में थक,
सो गई पलकें सलिल की;
प्रात की छवि ले चली आई नशीली रात देखो!
आज बेसुध रोम रोमों-
में हुई वह चेतना भी;
मर्च्छिता है एक प्रहरी सी
सजग चिर वेदना भी;
रश्मि से हौले जाओ न हो उत्पात देखो!
एक सुधि-सम्बल तुम्हीं से,
प्राण मेरा माँग लाया;
तोल करती रात जिसका,
मोल करता प्रात आया;
दे बहा इसको न करुणा की कहीं बरसात देखो!
एकरस तम से भरा है,
एक मेरा शून्य आँगन;
एक ही निष्कम्प दीपक-
से दुकेला ही रहा मन;
आज निज पदचाप की भेजो न झंझावात देखो!