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आज हम कास फूलन के / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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आज हम कास फूलन के
गुच्छा बनवले बानीं
शेफाली के
माला गँथले बानीं
धान के नवीन मंजरी से
डाला सजवले बानीं।
आवऽ हे शरत सुंदरी आवऽ
अपना ऊजर मेघ का
रथ पर चढ़ के आव।।
साफ सुथरा
निर्मल नीला
राह से होके आवऽ
ऊजर-धवर
आलोक से जगमगात
बन गिरि पर्वत पर
पैर रखत आवऽ
शीतल शीत से भींगल
ऊजर कमलन के
मुकुट पहिन के आवऽ
भरल गंगा के किनारे
एकांत कुंज में
झरल मालती फूलन के
आसनी बिछल बा,
उहाँ,
तहरा चरनन के चूमे खातिर
राजहंस घूम रहल बा।

अपना सोनहुला वीणा के
तार तनि झंकार द
मधुर-मृदु सुर के
सगरे उतार द।
भर द सगरी सृष्टि
मधुर मृदु सुर से।
सुनते मातर
हास्य स्वर
गल के-बदल के
छन भर खातिर
बन जाई
लोर के लड़ी
आँसू के धार
रह-रह के
जे पारसमणि
झिलमिला रहल बा
आके अपना करुणा भरल हाथन से
तनि हमरा मन के तारन से छुआ द।
ओह छुअन से
हमार समस्त भावना
सोना हो जाई,
सोना लेखा दमके लागी।
हमार समस्त अंधकार
प्रकाश में बदल आई,
आलोक बन जाई
आवऽ हे शरत सुंदरी आवऽ
अपना ऊजर मेघ का
रथ पर चढ़कर आवऽ।
तहरा स्वागत में हम कास फूलन के
गुच्छा बनवले बानीं
शेफाली फूलन के
माला गँथले बानीं।।