आठम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
जय गान लिख’ लागल दिनकर
रश्मिक लिपिमे; जयकार भेल
तिमिरक सत्तापर सारस्वत
संस्कृति ज्योतिक अधिकार भेल
भ’ गेल शोर जे ऋषि अगस्त्य
कयलनि वाणीसँ दर्प दमन
विन्ध्याचल भेल विनम्र, शिष्ट
झुकि-झुकि क’ कयलक ऋषिक नगन
देखल रबिके ऋषि; छल कृतज्ञ
भावे कवि-दम्पतिके तकैत
विन्ध्यक घाटीमे माणिक्यक
आभा पसरि जनु हो हँसैत
दूभिक फुनगीपर मोती-कण
नहि देखि चन्द्रमा विदा भेल
चमकल गोमेद, राहु ससरल
केन्द्रित गुरु अद्भुत प्रभा देल
पन्ना आ लाजावर्त्त देखि
बुध-केतुक रुखि अनुकूल भेल
गैरिक गिरिके मूँगाक ढेप
बुझलक मंगल, समतूल भेल
किछु श्वेत पाथरक टुकड़ीमे
हीराक भानसँ शुक्र मुग्ध
नीलाभ नीलमक छटा देखि
शनि शमित भेल, नहि छल विरुद्ध
बीतल शिशिरक हिमयुक्त समय
गौलक वासन्ती राग पवन
अनुभव कयलक ग्रह नक्षत्रो
उत्तरक ऋषिक दक्षिणागमन
सागरधरि पहुँचल समाचार
उमड़ल नर-सिन्धु बढ़ल ऋषि दिस
उन्मत्त लगै’ छल गाछ पात
सरिपहुँ सदेह सुस्मितिक सदृश
रखलनि अगस्त्य लोपाक संग
दक्षिणक भूमिपर पहिल डेग
यश-गान कर’ लागल जन-गण
पौलक श्रद्धा सम्पूर्ण वेग
लोपाकमुद्रामे गंगाके
प्रतिमूर्त्त देखलक कावेरी
ऋषिमे हिमालयी दृढ़ता छल
देखिते रहल बेरा-बेरी
स्वागत कयलक प्राफुल्य पुष्प
बरिसा क’ अगणित जन-समूह
बाजल: ‘ऋषिवर, शत-शत प्रणाम
तोड़ल अहँ विन्ध्यक तिमिर व्यूह
स्वागत अछि, एही ठाम रहू
नेतृत्व दिय’ हे ऋषि अगस्त्य
स्वर्गीय संस्कृतिक महिमासँ
मण्डित होयत दक्षिणक मर्त्य’
कहलनि अगस्त्य ऋषि: ‘एवमस्तु-
हम रहब दक्षिणे भारतमे
अन्वेषब जे भारती तत्व
कतबा समानता अछि रखने’
लोपाके रुचलनि बात मुद्रा
जगलनि दृढ़स्युकेर प्रति ममता
जनु कोखि - करेज काटि देने
हो मांत्रिक पतिक मंत्र-क्षमता
दृगसँ झरलनि वात्सल्य, हृदय
मातृत्व द्रबित भ’ गेल छलनि
लगलनि कि कतेको वर्ष बाद
आँचरके भिजा दूध बहलनि
अनुभव कयलनि ऋषि मनोव्यथा
कहलनि ‘लोपे! नहि द्रवित होउ
उत्तरमे छूटल एक पुत्र
दक्षिणमे अगणित पुत्र ढोउ
‘अछि देश एक, हम नहि विदेश
मे छी से करू यथार्थ बोध
ऋषिके! ऋषि कुल ललनाक हेतु
शोभा न दैछ अन्तर्विरोध
‘उत्तरक सिद्धिके पूर्णताक
महिमा दै’ अछि दक्षिणावर्त्त
पूजैछ हरद्वारक जलसँ
रामेश्वरके, जे अछि समर्थ
‘आतुरता अयलापर क्षणमे
हम पहुँचि सकै’ छी हरद्वार
वा दिव्य दृष्टिसँ आश्रमपर
द’ सकब नजरि हम लगातार
‘जँ विन्ध्यक दर्प पुनः जागत
हम अणु शक्तिक विस्फोट करब
भ’ जयतै खण्ड-खण्ड पाथर
हम जखन विखण्डन स्तोत्र पढ़ब
परिचित अछि विन्ध्य हमर तपसँ
ते मोल अराड़ि लेत नहि ओ
सदिखन विनम्र रहि धँसल रहत
संकटकेर अवसर देत न ओ
‘विजय क्षणमे कारुणिक भाव
रस-भंग करै’ अछि प्राण-प्रिये!
माया कर्मण्य - चेतनाके
केवल ठकि दै’ अछि हे लोपे!
जागल अछि जँ मातृत्व भाव
नहि हमर पितृत्वो सूतल अछि
जँ शक्ति अहाँ तँ हमहुँ ब्रह्म
ई तथ्य अहाँके बूझल अछि
आयल छी तँ रम्यता देखि
निश्चिन्त भावसँ रमू अहाँ
सैद्धान्तिक मंत्रान्वेषणके
व्यवहार-प्रमाणित करू अहाँ’
दृगमे दृग द’ ऋषि सम्मोहन
कयलनि, लोपा प्रकृतिस्थ भेलि
वात्सल्य भाव शृंगारित भ’
शान्तिक सुखमे संधिस्थ भेल
बढ़ि गेल डेग; आगाँ ऋषि-दम्पति,
पाछाँ - पाछाँ जन - समुद्र
जनु द्रविड़-सिन्धु उफनल लखि
आर्य - चन्द्रमा मित्रावरुण - पुत्र
किछु दूर प्राकृतिक प्रांगणमे
परिवर्त्तित शैल-शिल्प झलकल
हिंसक पशु-हीन पुष्प-वन-सन
घाटी रमणीक रमनगर छल
वनवासी - वनवासिनी कतहु
मृग-चर्म पहिरने घूमै’ छल
आ कतहु चाननक गाछ अपन
सुरभिक मादकते झूमै’ छल
छल कतहु तीर-धनुसँ घनके
भेदैत किशोर -किशोरी - दल
भ’ कतहु ठाढ़ सखुआक वृक्ष
कहि रहल स्वयंके योगी छल
किछु आगाँ शैल पर्वतक चन्दन
चर्चित मलयाचल आयल
लगलै लोपाके झमकि रहल-
हो जनु पंचम स्वरमे पायल
बाजलि लोपा - ‘विश्राम् करी
एहीठाँ हमरा सभ कविवर!
आश्रमित होइ, हो ऋचा-गान
मनमोहक अछि पर्वत प्रान्तर’
निकटेमे झहरै’ छल निर्झर
रुकि क’ पीलनि ऋषि शीतल जल
कहलनि- ‘हे कवयित्री! सरिपहुँ
ई स्थल अछि वास-योग्य निर्मल’
रुकला, रुकि गेल असंख्य चरण
ओहूठाँ बनल अगस्त्याश्रम
एके दिनमे निर्माण-कार्य
कयलक सम्पूर्ण सम्मिलित श्रम
आशीष पाबि ऋषिवरक, स्वगृह
भ’ गेल विदा स्वागती-वृन्द
आश्रममे रहला ऋषि-दम्पति
आतिथ्य-मग्न छल शैल-शृंग
किछए दिनमे प्रारम्भ कयल
ऋषि अध्यापन कार्यक प्रसंग
संस्कृतक जीहपर नाचि उठल
तमिलक सारस्वत रंग -ढंग
कतिपय किशोरवय विद्यार्थी
संस्कृतक संग पढ़ि तमिल धन्य
ऋषि तमिल व्याकरण लिखि देलनि
नहि रहल द्रविड़ भारती वन्य
अनुभव कयलनि जे व्याकरणे
उच्छृंखलताके दूर करत
संयमी बनत ओ प्रकृति पुरुष
जे व्याकरणित भाषा भाखत
तमिलक विद्वज्जनके ऋषिवर
आमंत्रित कयलनि आश्रममे
भाषा - शास्त्रक नव संविधान
अक्षरित भेल एही क्रममे
जे किछु छल आर्य प्रयोग-साम्य
अथवा जन-जीवनमे प्रचलित
सभपर तुलनात्मक दृष्टि पड़ल
भ’ गेल तमिल भाषा नियमित
बोली बनि गेल शिष्ट भाषा
साहित्य सर्जना शुरू भेल
शिष्य दल व्याकरण दृष्टि पाबि
गामे-गामे सुरखुरू भेल
उच्चरित कर’ लागल जन-गण
पाणिनिक संग ऋषिवरक नाम
छल दन्त-कथा बनि पसरि गेल
एकटा कथानक ठाम - ठाम