आतँक और एक प्रेम कविता / महाराज कृष्ण सन्तोषी
अभी जैसे कल की बात हो
जब मुझे उसने चूमा था इस पार्क में
उसके चुम्बन का सुख
भीतर ही भीतर छिपाते हुए
मैंने उससे कहा था
और मत करना साहस
अभी जैसे कल की बात हो
जब मौसम था बसन्त का
और पेड़ फूलों से भरे हुए थे
इन्हीं फूलों की महक में
हम बातें करते रहे
भूलते हुए समय को
और लौटते हुए घर
जब उसने मुझे भर लिया बाहों में
मैंने उसे चेताया
कहा
यहाँ हवा जासूस हे
कुछ भी छिपा नहीं रहता
अभी जैसे कल की बात हो
जब उसने
पुल और नदी को गवाह बनाकर
मुझे अपने प्यार का विश्वास दिलाया था
उस समय बहुत डर गई थी मैं
कहीं कोई दुश्मन चेहरा
हमें देख तो नहीं रहा था
पर अब जैसे थम गया हो समय
मारा गया मेरा प्यार
बीच सड़क पर
अपनी असीम सम्भावनाओं के साथ
क्या इसलिए वह मारा तो नहीं गया
कि वह प्यार के सिवा
कुछ जानता ही न था
ऐ मेरे वतन की हवाओ !
सचमुच यहाँ खतरनाक है
प्यार करना
फिर भी कहना
मेरे हमउम्रों से
जोख़िम उठाकर भी प्यार करना
जैसे हमने किया
समय के ख़िलाफ़
समय को भूलते हुए ।