आती है याद आज, शैल तट पर तुम्हारी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
आती है याद आज, शैल तट पर तुम्हारी उस निभृत कुटिया की;
हिमाद्रि जहाँ निज समुच्च शान्ति के
आसन पर निस्तब्ध नित्य विराजता,
उतुंग उसकी शिखर की सीमा लाँघना चाहती है
दूरतम शून्य की महिमा को।
अरण्य उतर रहा है उपत्यका से;
निश्चल हरी बाढ़ ने निविड़ नैःशब्द्य से
छा दिया है अपने छाया पुंज को।
शैलशंृग अन्तराल में
प्रथम अरुणोदय घोषणा के काल में
अन्तरात्मा में लाती थी स्पन्दन एक
सद्य़स्फूर्त्त चंचलता विश्व जीवन की।
निर्जन वन का गूढ़ आनन्द जितना था
भाषाहीन विचित्र संकेत में
पाता था हृदय में
जो विस्मय था धरणी के प्राणों की आदि सूचना मेें।
सहसा अज्ञात नामा पक्षियों के
चकित पक्ष चालना में
मेरी चिन्ता धारा बह जाती थी
शुभ्र हिम रेखांकित महा निरुद्देश में।
हो जाती थी अबेर, और लोकालय उठाता था
शीध्रता से सुप्तोत्थित शिथिल समय को।
गिरि गात्र पर चढ़ती चली गई है पगडण्डियाँ,
चढ़ते और उतरने है पहाड़ी जन
हलके भारी बोझ लेकर काम के।
पार्वती जनता
विदेशी प्राण यात्रा की खण्ड खण्ड वार्ताएँ
मन में छोड़ जाती है,
नाना रेखाओं में असंलग्न चित्र सी।
कभी-कभी सुनता हूं पास ही घण्टा कहीं बज रहा,
कर्म का दौत्य वह करता है
प्रहर प्रहर में।
प्रथम आलोग का स्पर्श आ लगता है
घर-घर में आतिथ्य का सख्य भाव जगता हैं
स्तर-स्तर में द्वार के सोपान में
नाना रंग के नाना फूल अतिथि के प्राण में
गृहिणों के हाथ से प्रकृति की लिपि ले आते हैं
आकाश वातास में।
कलहास्य से लाती है मानव की स्नेह वार्ता
युग-युगान्तर मौनी हिमाद्रि की सार्थकता।
‘उदयन’
सायाह्न: 25 फरवरी, 1941