घर के सामने गुलमोहर  पर 
शोकहीन अशोक पर 
गुजर - बसर करती गौरैया 
वक्त - बेवक्त पर लगा फेरा 
करती है मेरे मन मे घर 
वो आ बैठती है लोहे की सलाखों पर 
काँच के उस पार से देखती है इस पार 
मेरे घर के भीतर 
वह देखती है बेजुबान सागौन और साल को 
जो सजा है बैठक में सोफे की शक्ल में 
शहर की बैठकों में आता है बमुश्किल कोई 
ईन -गिन के कोई बैठते है तीन लोग
होतें यही दरख़्त गर प्रकृति की गोद में 
तो बनते कितनें ही परिंदों का आशियाँ
अपनी भूल मानकर , खुद को खुदगर्ज़ जानकर 
रखती  हूँ  मैं रोज दाना और सकोरे में पानी
मैं हूँ तैयार हर पल , हो सके तो किसी पल 
उनकी एक पुकार पर लौटा सकूँ उनको
उनका ही घर / जंगल