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आत्मचेतस स्त्रियाँ / सुभाष राय

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दासियाँ नहीं हैं, देवदासियाँ भी नहीं
ये सब की सब स्त्रियाँ हैं, स्त्रियाँ

उन्होंने इनकार कर दिया है
केवल श्रद्धा होने से
जीवन के समतल में
पीयूष स्रोत-सी बहने से
पत्थर की तरह पूजे जाने से

वे आँचल में दूध और
आँखों में पानी के मुहावरे से
बहुत आगे निकल आई हैं

उन्होंने घूँघट उतार फेंका है
और चौखट लाँघकर आ गई हैं सड़क पर
सदियाँ गुज़र गईं ख़ामोशी में
वे अब साफ़-साफ़ बोल रही हैं
कविताएँ लिख रही हैं
कहानियाँ रच रही हैं
नाच रही हैं, गा रही हैं
ख़ुशी से चीख़ रही हैं

प्यार करना चाहती हैं ख़ुद को
अपने स्वीकार को, अस्वीकार को
चुनने की आज़ादी को, नहीं करने की मरज़ी को

जड़ता की मूर्तियाँ तोड़कर
निकल आई हैं बाहर, पूरी तरह सचेष्ट
धरना दे रही हैं पुरुषों के दिमागों में
माँग है कि उन्हें भी मनुष्य समझा जाए

तुम किसकी-किसकी नाक काटोगे
कितने सिर नेजे पर टाँगकर घुमाओगे
कितनों को ज़िन्दा जलाओगे
स्त्रियाँ अपने समय की आत्मा में ‌ खड़ी हैं
और आत्मा जलती नहीं, कटती नहीं, मरती नहीं

तुम १३ वीं शताब्दी में ठहर गए हो
तितलियों के पँख नोचते हुए
तलवार चलाने का अभ्यास करते हुए
मूँछ, पगड़ी और झूठी शान पर सान देते हुए

तुमसे आठ सौ साल आगे आ गई हैं स्त्रियाँ
सब जूझने, लड़ने और लड़ते हुए मरने को तैयार
जौहर में किसी का यक़ीन‌ नहीं
ख़ुदक़ुशी का कोई इरादा नहीं

यहाँ कोई पद्मिनी नहीं है
सब की सब स्त्रियाँ हैं
चैतन्य, आत्मचेतस स्त्रियाँ