आत्मन् हर रोज़ शाम के धुँधलके में
चुपचाप कहीं चला जाता था
मध्य-रात्रि के निर्जन में
नक्षत्रों के उत्सव में वह
एकाएक प्रकट होता था
फिर अपनी प्राचीन खँजड़ी बजाता
चिल्लाता-गाता पुकारता था !
-- कहीं से कोई उत्तर नहीं आता था
उसकी पुकार ऊपर उठकर
बारिश-सी वापिस उसपर झरती थी
पुकारता हुआ आत्मन् एक समय
अपुकार के गह्वर में गिर जाता था !