भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आत्मन का लिबास / राजी सेठ
Kavita Kosh से
घर भर को प्यारी
बहुत दुलारी
चौखट के भीतर पैर रख चुकी दिपदिपाती स्त्री
प्यारी क्यों न होती
स्त्री के पास ही तो था जादू का पिटारा
सदियों-सदियों पुराना
स्त्री के पास ही तो थे
बाबा आदम के जमाने से
सदा साथ
दो-दो हाथ
हाथों में जादू रांधता पकाना
जीमना जिमाना
जोड़ना संवारना
फटे को थिगड़ी
तपे को तरावट
रूठे को मनुहार
ढहते को दीवार
भूखे को पकवा
अलसाए को बिछौना
वंश को कोख
बिलखते को गोद
स्त्री के पास सब कुछ
कितना कुछ तो था
छत थी, खावन-खिलावन लुगड़ा-बिछावन
दो जादुई हाथ
पैर थे
देह थी
प्राण थे
आत्मन भी कहीं न कहीं तो होगा ही होगा
आत्मन का लिबास
बेसुध बौराई ने पता नहीं कब कहां
रख दिया होगा