आत्मालाप / दिनेश कुमार शुक्ल
टूटे घट-सी जिन्दगी, बजती है बेताल।
कुछ भी हो बजती रही, यह भी खूब कमाल।।
यह पाती हूँ लिख रहा, तुमको बरसों बाद।
आया जबसे छोड़ कर, शहर इलाहाबाद।।
ले दोहों की दोहनी, रगड़ रगड़ कर माँज।
दुहने बैठा बुळि की, भैंस हो चली बाँझ।।
काले भूरे खुरदरे, ले अकाल के रंग।
गगन पटल पर लिख रहा, औघड़ एक अभंग।।
यादों की सीलन भरी, तंग कोठरी बन्द।
खोली पूरे गाँव में, फैल गई दुर्गन्ध।।
जीवन के किंजल्क में, इतने रंग सुगंध।
रस के औ आनन्द के, भरे अनेकों छन्द।।
एक लोहे का आदमी, एक गुलाब का फूल।
मेरे जीवन वृक्ष के, ये दोनों जड़ मूल।।
गूँज रही वाणी विकल, अर्थहीन निरूपाय।
शब्द अर्थ को ले उड़ा, कौन कहाँ अब जाय।।
इस निर्बन्ध प्रलाप में, बिन तुक ताल तरंग।
टकराते हैं दृश्य और, बजता फटा मृदंग।।