भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आत्म ज्ञान / कल्पना लालजी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मृत्यु शैया पर बैठा मैं
मुड कर देखूँ पीछे आज
असंख्य चेहरे जाने पहचाने
मुझको कोई न जाने आज
लड़ता और झगड़ता था
जिनकी खातिर दुनिया से
जाने क्या-क्या कर गुजरा
उनकी खातिर दुनिया से
मानवता की सीमा लांघी
सच झूठ की गांठे बांधी
असमर्थता इस तन की
बेबसी का पहने ताज
साफ़ नजर अब आता है
नहीं किसी संग नाता है
झूठे हैं ये रिश्ते सारे
अंत समय बस खडे किनारे
करें आज भी खुद पर नाज़
जीवन गर् परछाई है
मृत्यु उसकी सच्चाई है
ताउम्र मैं न माना
अंत समय अब पहचाना
एक-एक कर उठे परदे
आज खुले उसके सब राज़
देर बहुत अब हो चुकी
फूलों से काठी सजी
जिस माटी को रौंदा मैंने
वही बुला रही है आज