भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आदत / हरीश करमचंदाणी
Kavita Kosh से
देखना एक दिन
क्या गुल खिलाएगी तुम्हारी यह आदत
अगर छूटी नहीं तो कहीं के ना रहोगे
ना रहने दोगे हमें भी
छोड़ी ना जो यह आदत
बचेगा ना कोई दोस्त
खैर दुश्मनों की फेहरिस्त तो काबिले रश्क होगी
अपने तो बेशक हो ही जायेंगे पराये
आईना भी मुँह मोड़ लेगा
अकेले भी रह जाओगे
इसका भी मत रखना यकीन
अब भी संभल जाओ
और छोड़ दो यह आदत
सच बोलने की