आदमी का रक्त / तरुण
धूप में है वही सनातन चमक
मोतियों में वही दमक
कलियों में भी वही महक
और,
ठण्डी-ठण्डी नरम प्राणवल्लभा हरियाली में
हो रहा है वही सनातन मांसल जीवन-रस व्यक्त!
बस, बदला है तो एक-
केवल, आदमी का रक्त!
अब नहीं रह गया है
आदमी का रक्त
लाल-
अनार के ताजा फूलों-सा
वसन्त की या जेठ की उषा-सा, या
सन्ध्या-सा,
या, जैसे पलाश की दहकती-सी हो
सौन्दर्यमयी ज्वाल!
लाल था वह तब-
धरती पर, जब-
अन्याय की बात पर
स्वाभिमान के आघात पर
आदमी का रक्त खा जाता था
उबाल-
जैसे, गेंद खा जाती है
टप्पा या उछाल!
राजमहल, बारहदरी, कोट-कँगूरा, या रणखेत
आदमी रहता था जब आन के लिए सचेत!
खट्ट-खट्ट हो उठते थे वार,
खन्न्-खन्न् बज उठती थी तलवार,
बह जाता था साँवला तामसिक रक्त नापाक-
हिसाब लगे-हाथों हो जाता था साफ!
देखते-ही-देखते, हरियाली पर
बह जाता था सृष्टि का अनचाहा रक्त;
और फिर रह जाता तुरन्त ही-
आकाश नीला, धूप वही चमकीली, हँसी उजली,
मन चिट्टा और मुक्त!
दिन हो या रात-
सूनी पगडण्डी पर भी आदमी चलता था निःशंक,
मूठ पर रहता था हाथ,
और मूँछ में रहते थे तने बिच्छू के डंक!
धरती पर रहते थे माई के लाल,
और तब आदमी का रक्त होता था लाल!
सुबह-पीला
दोपहर-नीला
शाम को- लाल
और रात को श्याम;
-गिरगिटिया हो गया है अब तो आदमी तमाम!
1976