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आदमी के भीतर / नरेश मेहन

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मैं
देख रहा हूँ
इस शहर के लोगों को
जरूर कुछ हो गया है
या होता जा रहा है
झूठे नाम के लिए
क्यों लड़ते हैं?
सस्ती वाह-वाही
हासिल करने की
फिराक में क्यों रहते हैं
वक्त बदलते है
लोग बदलते है
लेकिन
इनकी हवस
नहीं बदल रही हैं
खाक मे मिल रहे हैं
खाक में मिला रहे हैं
जल रहे हैं
जला रहे हैं
क्यों इन्सान की नसल को
बिगाड़ रहे हैं?
इस शहर में
जिन्हें
मैं जान सका
एक-एक आदमी तिलस्मी है
इनकी तहों तक
पहुँचने में मेरा
बहुत सा वक्त
बरबाद हो गया।
मैंने जो कुछ देखा व जाना
बहुत भंयकर था
इसीलिए कई बार
इच्छा होती है
नंगा होकर
इन लोगों के बीच
एक लम्बी दौड़ लगाऊं
सब पर हँसता हुआ
क्योंकि
मैं उन्हें नंगा कना चाहता हूँ।
इतने लोग
इतनी बातें
इतना छल-कपट
इतना ज़हर
इसी एक आदमी के भीतर
जो हर दूसरे आदमी हो
निगलना चाहता है।
अब आदमी
आदमी क्यों नहीं हैं?