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आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ / निश्तर ख़ानक़ाही

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आदमी को बेवतन, घर को जज़ीरा मान लूँ
क्यों न अब ख़ुद को भी इस मंज़र का हिस्सा मान लूँ

क़हक़हों की गूँज से लरज़ा न दूँ दीवारों-दर
क्यों न हर ज़हमत* को अब पल भर का क़िस्सा मान लूँ

निस्बतें* जो कल बनेंगी उनका अंदाज़ा करूँ
टूटते रिश्तों को मौसम का तक़ाज़ा मान लूँ

वो ही तेवर के नियाज़ी थे, वही अंदाज़ों-रंग
क्यों न हर चेहरे को अब तेरा ही चेहरा मान लूँ

हिल गई बुनियाद लेकिन बामो-दर टूटे नहीं
वक़्त से पहले ही क्यों दिल को शकिस्ता* मान लूँ

क्या ख़बर वो बस्तियाँ, वो लोग अब बाक़ी न हों
रास्ते से लौट जाऊँ दिल का कहना मान लूँ

1- कष्ट

2-रिश्ते

3-खंडित