आदिवासी / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
इस मिट्टी में गिरा हुआ आदिम बीज हूँ मैं
इसी में उगा हुआ पौधा हुँ
यहीं की हवा में साँस लेकर पला-बढ़ा
यहीं के जल से तृप्त हुआ
यहीं गड़ी हुई हैं मेरी जड़ें
इसी के ऊपर फैली हुई हैं मेरी शाखाएँ
इसी मिट्टी से बना हूँ मैं
इसी में खड़ा वृक्ष हूँ
ऋतुओं को बदलते
यहीं गिरा हूँ और फिर उगा हूँ
सहता रहा यहीं
सर्दी की कठोर ठण्ड और वर्षा की अनवरत बारिश
इसी धरती की शारदीय छटा में
मिलायी अपनी यौवन की लाली
कालान्तर से
वैसे ही जी रहा हूँ यहाँ
पचाया हवा और जल
हाथी की सूण्ड में लपटते हुए
गैण्डे के पैर के नीचे घिसटते हुए
बाघ–तेंदुएँ से लड़ते–लड़ते
रचा हूँ इस श्रापित कालापानी में
सुनहरी उपत्यका
यह मिट्टी मेरी माँ है
इसी का लिखा हुआ आख्यान हूँ मैं
ख़ाली हैं ज़मींदार के बहिखाते के धुमिल पृष्ठ
वहाँ नहीं मिलेगा कोई हिसाब
किस–किस महाराजा की सवारी में
मैंने जिगर के टूटने तक रास्ता खोदा
कितना हल जोता चौधरी का खेत
कितने दिन चलाया फावड़ा
एक टुकड़ा लंगोट के सहारे
कितने साल–महिने और दिन की शरम ढँका
लेकिन रखा है मैंने एक–एक हिसाब
न पटवारी को मालूम है
न चौतरिया को मालूम है
लेकिन मालूम है मुझे
कहाँ–कहाँ चुकाया मैंने
साँस लेने का मूल्य
इस मिट्टी के सिवाय मेरा कोई नहीं है सहोदर
कोई रिश्तेदार, कोई प्रियजन
इस मिट्टी के अलावा कोई नहीं है मेरा अपना
इसी में दफनाए गए हैं
महामारी में मरे हुए मेरे पुरखों के हस्तीहाड
मलेरिया से निगले हुए मेरे दोस्तों की पसलियाँ
हैजा से सफाया किये हुए मेरे बच्चों की मासूम कोमल खोपडि़याँ
मैं उन्हीं अवशेषों का साक्षी होकर बैठा हूँ
भुलाए बिना कोई हरफ़
मैं उन्हीं त्रासदियों की कहानी कहने के लिए खड़ा हूँ।