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आधुनिक लोककथा / बैर्तोल्त ब्रेष्त / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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युद्ध के मैदान पर छा रही थी शाम
दुश्मन को दी जा चुकी थी मात ।
चारों तरफ़ भेजे जा रहे थे टेलिग्राम
जो लाए जा रहे थे सौगात ।

दुनिया के दूसरे कोने में फिर
एक चीख़ उठी आसमान को चीर
कौन, कहाँ, अब किसे सँभाले
मचल उठे सब हो मतवाले.
श्राप भरे हज़ारों होंठ पड़ गए फीके
मुट्ठी बँधे हज़ारों हाथ नफ़रत पीके ।

उसी दुनिया के दूसरे किनारे
जश्न मनाते जुट गए सारे
कैसी जयकार, कैसी थिरकन, कैसा उल्लास
आख़िर सबने ली अब राहत की सांस ।

ईश्वर को पूजें हज़ारों साथ-साथ
नमन में जुड़ गए हज़ारों हाथ.
और फिर रात को बार-बार
ख़बर भेजते रहे टेलिग्राफ़ के तार
कितने मरे, लाशें बिखरी जहाँ-तहाँ
दोस्त, और दुश्मनों की चिताएँ
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और रोती रही माताएँ
कोई यहाँ – और कोई वहाँ ।

मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य