आनबान / हरिऔध
लोग काना कहें, कहें, सब क्या।
लग किसी की न जायगी गारी।
चाहिए और की न दो आँखें।
है हमें एक आँख ही प्यारी।
चाहते हैं कभी न दो आँखें।
दुख जिन्हें धुंध साथ घेरे हो।
ठीक, सुथरी, निरोग, उजली हो।
एक ही आँख क्यों न मेरे हो।
आप ही समझें हमें क्या है पड़ी।
जो कि अपने आप पड़ जायें गले।
है जहाँ पर बात चलती ही नहीं।
कौन मुँह ले कर वहाँ कोई चले।
क्या करेंगे तब अछूती जीभ रख।
जब कि ओछी सैकड़ों बातें सहीं।
लोग छीछालेदरों में क्यों पड़ें।
छेद मुँह में क्या किसी के है नहीं।
मर मिटेंगे सच्चाइयों पर हम।
दूसरे नाम के लिए मर लें।
हम डरेंगे कभी न हँसने से।
लोग हँसते रहें हँसी कर लें।
क्यों अपरतीत के घने बादल।
चाँद परतीत को घुमड़ घेरें।
देखिये बात है अगर रखना।
भूल करके तो न बात को फेरें।
रंग में मस्त हम रहें अपने।
मुँह निहारें बुरे भले का क्यों।
किस लिए हम सदा बहार बनें।
हार होवें किसी गले का क्यों।
धूल आँखों में न झोंकें और की।
धूल में रस्सी न भूले भी बटे।
काटना चाहें न औरों का गला।
कट न जाये बात से गरदन कटे।
जो कमाई कर मिले धन है वही।
आँख पर-मुख देखनेवाली सिले।
माँगने को क्यों पसारें हाथ हम।
क्यों हमें हीरा न मूठी भर मिले।
जान कढ़ जाय, है अगर कढ़ती।
दाँत कढ़ने कभी नहीं पाये।
माँगने के लिए न मुँह फ़ैले।
मर मिटे पर न हाथ फ़ैलाये।
साँसतें हम सहें न क्यों सब दिन।
मुँह किस का नहीं निहारेंगे।
पाँव अपना पसार दुख लेवें।
हाथ हम तो नहीं पसारेंगे।
बाँह के बल को समझ को बूझ को।
दूसरों ने तो बँटाया है नहीं।
धन किसी का देख काटें होठ क्यों।
हाथ तो हम ने कटाया है नहीं।
कौड़ियों पर किस लिए हम दाँत दें।
है हमारा भाग तो फूटा नहीं।
क्या हुआ जो कुछ हमें टोटा हुआ।
है हमारा हाथ तो टूटा नहीं।
देख कर मुँह और का जीना पड़े।
और सब हो पर कभी ऐसा न हो।
वह बनेगा तीन कौड़ी का न क्यों।
जिस किसी के हाथ में पैसा न हो।
हो न पावे मलीन मुँह मेरा।
रह सके या न रह सके लाली।
तन रहे तक न जाँय तन बिन हम।
धन न हो पर न हाथ हो खाली।
जो नहीं मूठी भरी तो क्या हुआ।
जो मरे धन के लिए वह बैल है।
किस लिए हम मन भला मैला करें।
धन हमारे हाथ का ही मैल है।
है किसी काम का न लाख टका।
रख सके जो न ध्यान चित पट का।
क्यों न बन जाँयगे टके के हम।
दिल टका पर अगर रहा अटका।
चाहिए मान पर उसे मरना।
क्यों उसे मोहने लगे पैसे।
जाय लट वह अगर गया है लट।
जी हमारा उलट गया कैसे।
क्यों न होवे बेलि अलबेली बड़ी।
क्यों न सुन्दर फूल से होवे सजी।
हम सराहें तो सराहें क्यों उसे।
क्यों उसे चाहें अगर चाहे न जी।