आन रेत की / अश्वनी शर्मा
न जाने अपनी किस आन के लिए
आन की आन में छोड़ दिये थे
पल्ली वालों ने ये गांव
और पीछे छोड़ गये
कई किवंदंतियां
आत्म सम्मान के साथ जीवनयापन
श्रमशीलता से उत्पन्न वैभव
अनुशासन से उत्पन्न
नियोजित ग्राम व्यसस्था
प्रज्ञावान लोगों का अनुशासित, आत्मगर्वित
मानवीय सह-जीवन का
वह दर्शन
उस रेत के जंगल में
पूर्ण मुखरित हो उठा था
रेत में
रेत से हो
रेत से सोना बनाते
वो कीमियागर
ऐसे सुखी जीवन को
बात की बात में छोड़ गये
आत्म सम्मान की खातिर
रेत ढूंढती है कोई ओढ़नी कोई साफा
या फिर कोई बच्चे की लंगोटी ही
कहीं तो मिले कोई
निशान रेत के उन कर्मठ पुत्रों का
जिन्होंने रेत के साथ रची थी
सभ्यता के विकास की कहानी
उनकी कर्मठता को
याद करती रेत
आज भी पगलाई-सी
डोलती है एक-एक आंगन में
अभी भी प्रतीक्षारत है
अपने उन आन के धनी
कर्मठ पुत्रों के लिए
आज खाली इन गांवांे में
आवारा कुत्तों
और सांडों के साथ
डोलती है रेत घर-घर
संभाल आती है
घर का एक-एक कोना
बहुत कोमलता से
दीवारों से पूछती है
कब हुआ था तुम्हें
मानवी स्पर्श।
जैसलमेर राज्य में एक समृद्ध-संपन्न जाति पालीवाल ब्राह्मणों ने एक ही रात में आत्मसम्मान के लिए राज्य छोड़ दिया था, उनके वे गांव आज भी वीरान हैं