कबीर
तुमने कहा-
‘सुत अपराध करे दिन केते
जननी के चित रहे न तेते...’
और तुम चले गये
धरती-पुत्र के लिए
कुछ पुष्प छोड़कर
कबीर
तब से अब तक
उच्छृंखल होता गया
दिन-ब-दिन
धरती-पुत्र का व्यवहार
वह नोंचता रहा
धरती के केश
लतियाता रहा
धकियाता रहा
धरती को
छेदता रहा
भेदता रहा
उसकी देह
कबीर
सदियों की पीड़ा
और आक्रोश को समेटे
धरती के
धैर्य का तटबंध
आँखिर आज टूट ही गया
और बह निकली
हिमालयन सुनामी
खंड-खंड हो गया
केदारखंड।