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आपने जिसमें रंग भरा था, वह तस्वीर बदल गई है / शलभ श्रीराम सिंह

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आपने जिसमें रंग भरा था, वह तस्वीर बदल गई है
अब तो कानों-कान चलेगी, आख़िर बात निकल गई है

नीद में खोए तिफ़्ल के मुँह से रंग-बिरंगे फूल झरे
शायद पिछली भोर की लाली दीप की लौ में ढल गई है

टूटी किश्ती, दूर किनारा, सर पर है घनघोर घटा
ऐसे में तफ़ानों की नीयत भी चुपचाप बदल गई है

साहिल-साहिल शोर बया है दरिया-दरिया चर्चा है
आज किसी माँझी की शायद तूफ़ानों से चल गई है

मावस का मतलब बेटी की दुखिया माँ समझती है
भूख की मारी रात अचानक चाँद को आज निगल गई है

बाप की इज्ज़त मांग के सपनों से टकरा कर टूट गई है
ख़ून में डूबी रेल की पटरी, चीख़ हवा को चीर गई है

घटना तो कुछ ख़ास नहीं है, बात किसी की टल गई है
फूल से तन में आग लगा कर एक सुहागन जल गई है

सबने शलभ को हँसते देखा पत्थर की बौछारों में
आपके हाथ से लगने वाली फूल की पँखुरी खल गई है



रचनाकाल : 15 मार्च 1984

शलभ श्रीराम सिंह की यह रचना उनकी निजी डायरी से कविता कोश को चित्रकार और हिन्दी के कवि कुँअर रवीन्द्र के सहयोग से प्राप्त हुई। शलभ जी मृत्यु से पहले अपनी डायरियाँ और रचनाएँ उन्हें सौंप गए थे।