भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आपरो-परायो / हरीश बी० शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पीड़ जद अणजाण देवै
सै‘ जावां
आ सोच‘र थ्यावस राखलां ऐकर
कै सलट लेसां
मोड़ा-बेगा, आपला तांईं
पण आपलां री नूण-मिरच
सज्जनां नै कांईं
गैलै नै भी रोवाण देवै है
बाळ देवै है सगळो
 ........
माटी रै महलां दांईं
हड़हड़ा‘र पड़ ज्यावै
सगळी बातां ।