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आमीन !! / लीलाधर मंडलोई

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दरवाजे को थपथपा रही है सर्द यह रूत
एक व्‍यक्ति हटा रहा है फुटपाथ पर अपनी गुदड़ी
एक स्‍त्री की गोद में बर्फीले रंग के ऊन के गोले हैं

उघड़ी बांह सूरज की तरफ किए
एक स्‍वेटर धूप में सूख रही है
रोशनदान से उतर धूप का शोख टुकड़ा
एक बच्‍चे की हंसी गुदगुदा रहा है

कंबल से विस्‍थापित डोरों को मां जतन से बांध रही है
पिता की पुरानी ऊनी खादी की जेकिट पहन
भाई शीशे के सामने नए फैशन में खड़ा है

धरती के पेड़ हरे हो उठे हैं और
पत्तियों पर धूप रह-रहकर चमक रही है
गोकुल अभी-अभी लौटा है इतवारी हाट से और
सूपे में सजे हैं पालक, मैथी और बथुआ

पड़ोस के चूल्‍हें पर चढ़ा है सरसों का साग
जो हुलसता पहुंच रहा है हमारी स्‍वादेन्द्रिय तक
दिसम्‍बर के सेहतमंद मौसम में
बेटे के सारे दोस्‍त अमरूद के पेड़ पर हैं और
उनमें से आ रही है अमरूद की तेज गंद
सरसों के साग से जबरजोत करती उसे अपदस्‍थ

इस ऋतु के ओसारे बैठ हम
पी रहे हैं धूप, हवा और नीबू चाय जो
सबसे प्रिय है इस समय हमें
इसी उतरती ऋतु में मिले थे हम पहले-पहल
चौधरी की गली से निकली थी बाहर सकुचाती वह
रिक्‍शे का कसा हुड हमने खोल लिया था
खुली हवा उसके चेहरे से खेल रही थी और
कान का बुंदा रह-रहकर चमक उठता था
स्‍वेटर में ढुबकी वह मासूम फाख्‍ता थी
जिसके स्‍पर्श में डूबा हुआ मैं चुप था इतना कि
सांसों की घंटियां बज रही थीं मधुर कानों में

रिक्‍शावाला पूछ रहा था रास्‍ता
और मैं कह रहा था चलो उधर
दिसम्‍बर जिधर खत्‍म होता हो और
जनवरी जोहती हो बाट स्‍वागत में
उसने जाने क्‍या सोचा और दौड़ाता रहा रिक्‍शा
रसेल चौक से आगे 'आनंद स्‍वीट्स' पर रूक कहा उसने
फिलहाल तो आप खाएं दिसम्‍बर की मिठाई और
पीता हूं मैं तब तक चाय हफ्ते की बची पहली रेजगारी से
कहें अगर तो ले आऊं मुन्‍ना भाई से दो बढिया पान

कोई और रास्‍ता न देख उतर पड़े हम
अंदर मिठाइयां सजी थीं और दही था मीठा खास
दोनों ने पसंद किया दही शुभ
और ले आए एक कुल्‍हड़ साथ कि शुभ बना रहे
रिक्‍शेवाले ने मुस्‍कुरा के पेश किए पान
दोनों ने खाए संकोच में खूब रचे

रचता है जब पान खूब, कहते हैं
बढ़ता है प्रेम निष्‍कलुष
हमने अनुभव किए अपने भीतर
सातों समुद्र, सारे आकाश और समस्‍त पृथ्वियां
तब से शीत की ऋतु है बहती हमारे आर-पार और
1982 का दिसम्‍बर इतना आमीन!!
कि हवा बह रही है खुनकभरी और धूप भी है रेशमी चमकदार.