आम्रपाली / विरह / भाग 3 / ज्वाला सांध्यपुष्प
माघ रात सोआद में, तितगर तिअन जइसन।
चद्दर काँपे कइसन, जइसन बुर्हबा दूल्हा।
रूपइया हए बेकार, जेन्ना घास के ‘ज्वाला’॥
दिन उरल चुरमुन्नी सन्, हए रात जइसे बर बाघ।
साल सोलह सङ रहे, तब बीते इ सरद माघ॥8॥
फागुन के फगुआ कइसन, तू तनको न बुझबअ।
पुरबा-बुरहबा रहसे अइसन, तू सुतलही रहबअ॥
तू सुतलही रहबअ, देओर चिल्होर अब लूझे।
भँइसुर जतो भसिया, तऽ तरेगन लगतो सुझे॥
पतरि पबइते दउरऽ, आबऽ हो हम्मरो अरजुन।
आफत से बचाबऽ, जिए न देतो इ फागुन॥9॥
जइत मास खरमास हए, रहे चइताबर के धूम।
ले जा रहे पंडुक चिट्ठी, हम्मर रघुबर लेत चुम॥
हम्मर रघुबर लेत चुम, सब्भे धंधा छोड़कऽ।
कहिए कोइलि कनइअ, माथा अप्पन फोड़कऽ
हुकहुक करइअ मरल, छटपट् करे काम-करइँत।
धधकइअ आग उप्पर, ससरइअ न इ मास चइत॥10॥
बइसाख के साख खतम, धुर्रा ओक्कर धरोहर।
रउदा राज करे हरदम, लहू गिरइअ सबतर॥
लहू गिरइअ सबतर, पानी ला लोग तरसइअ।
कच्चगर कटहर दिनकऽ, रउदा में रोज पकइअ॥
मउलल मन उधियाए, देह जरकअ बनल राख।
खाए ला टिकोला, न भूलिहअ तू बइसाख॥11॥
जेठ के अन्हर धकियाबे, एगो असगर समझइअ।
कागज-पन्नी अकाश में, तोरे नाहित उड़इअ॥
तोरे नाहित उड़इअ, बुझाइअ तोरे चिट्ठी हए।
कि तोरे स्वागत में, टाङल कोनो फन्नी हए॥
चोभा मार सुकुल के, खूब भरलऽ अप्पन पेट।
देह भुक्खल इ तकइऽ, अब कइसे बीतत जेठ॥12॥
असार्ह में बुन्नी पट-पट करे
रह-रह हम्मर चोटी काने।
निर्दइया पिया बिनु आइ हम्मर
मरल हिया केन्ना माने॥13॥