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आम्रपाली / वैशाली गमन / भाग 4 / ज्वाला सांध्यपुष्प

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गाल हए कि गुलाब इ, हए कइसन रङ में लाल।
देखे से लाली बर्हत, न देखु मन बेहाल॥
न देखु मन बेहाल, सुक्खल पत्ता पान जइसन।
छुअ ओक्करा प्रेम से, लजाएत लजउनी अइसन॥
कहत कवि ‘सांध्यपुष्प’, सुख से हो माला-माल।
ब्रह्मानन्द मिल जाएत, देखु दूर से सुन्दर गाल॥28॥

ठोर्ह पर न ताकू अखनि, भोर असली पहर।
नेमो जाबा जइसन इ, चूसू दू-दू बक्खत॥
चूसू दू-दू बक्खत, अङूर सन मीठ लगइअ।
देखु ओकरा दुर से, चौकलेट फेल हो जाइअ॥
सम्राट के मन उचाट्, देहो में उट्ठे मरोड़।
चुसे लेल ओक्करा, सब्सबाइअ ओक्कर ठोर्ह॥29॥

छाति गुदगर सइआँ के, रखले हति संयोग।
भूल गेली सब्भे केलि, कइसन हए संभोग॥
कइसन हए संभोग, सोच-सोच हिया काँपे।
गेल पिया परदेश, मन जखनि-तखनि हाँफे॥
चक्कित हए अजातशत्रु, देख जुअनकि के थाती।
नद्दी में नहाइतो, हए धएले दुन्नो छाती॥30॥

बाँह पर छाह अँचरा मे, करइअ झिलिमिल खूब।
रोह मछरी सन हए चिक्कन, पोखरी में उब-डुब॥
पोखरी में उब-डुब, रह-रह तकइअ अइसन।
छुए लेल उ हरिण के, मन-कुत्ता दउरे कइसन॥
लग्गल आग तन-बन में, सूझइअ न कोनो राह।
आग के मुझाबे न, नारी के इ सुन्दर बाँह॥31॥

डाँर्ह हए पुट्ठा बाघ के, चले खूब लचकइअ।
डमरू सन बीच में पतरा, भर मुट्ठी के होइअ॥
भर मुट्ठी के होइअ, गुद्दा सऽ कन्ने बिलाएल।
कुछ नितम्ब पर बइठल, कुछ उड़कअ बनल असतन।
आँख इ चोन्हराएल, चल गेल उ अजात हार।
कुच्छो न सूझे एक्करा, खाली सूझे इ डाँर्ह॥32॥

जाङ केरा थम सन उल्टल, आम-जर सन हए नितम्ब।
ढोंर्ही गहिर पोखरी सन्, बिल्ब सन गोल असतन॥
बिल्ब सन गोल असतन, चान-सुरुज नाहित चमके।
कुच-कुच करिआ केश, बिच लउके दन्त सन् उलिके॥
गिरत राजा निस्सा में, जइसे खएले हए भाङ।
सारी सट्टल शरीर, हए जल में डुबल अर्द्ध जाङ॥33॥

सुरुज थककअ चूर हो गेल।
माथा से ससर दूर हो गेल॥
‘बृद्ध ब्याघ्र’ निकल गेल जङल से।
रूप-रस पीकऽ खूब दङल से॥34॥

दउड़ल पियासल पोखरी में।
लेले सब ज्ञान धोकरी में॥
बुरह्बा के देख सब्भे भागल।
अम्रपालि देखकऽ हँस्से लग्गल॥35॥