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आम आदमी / सौरभ
Kavita Kosh से
मैं ठहरा इक आम आदमी
मैं क्या जानूँ सच्चा-झूठा
मैं क्या जानूँ मँदिर-मस्जिद
मैं ठहरा इस भीड़ का हिस्सा
जब फँस गया मैं लूटपाट में
कुछ ज़ेवर मैं भी उठा लाया
जब लगने लगे नारे
मैंने भी हाथ उठाए अपने
मेले में बच्चे को उठा नाचा मैं भी तन से मन से
सहम सा गया मैं जब सामने मेरे चली थी गोली
राम नाम सत्य कहते ले गया उसे मुर्दघाट भी।
मैं ठहरा इक आम आदमी
जीता जैसे सब जीते हैं
शर्मा वर्मा और सेठी बगैरा
मेरा खर्चा चलता मुश्किल से
महँगाई भी तो बढ़ गई भईया
बड़े काम बड़े लोगों के
मैं ठहरा इक आम आदमी।