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आम और पत्तियाँ / हरीशचन्द्र पाण्डे

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दो पत्तियों के पीछे छुपा है आम
अनुज है पत्तियों का

पत्तियों के सामने-सामने ही तो आये थे बौर
कुछ झड़े रुके कुछ

देखते-देखते बड़े हुए

हरे से पीले हुए
खट्टे से मीठे

अब इन्हीं पत्तियों को पिछवाता
बाहर निकल आया है आम

देशान्तर बिकने को तैयार आम बतियाते हैं आपस में
हवा-हवा के खेल में कैसे हार जाती थीं हमसे पत्तियाँ
ओलों से तार-तार हो कैसे बचाती थीं हमें
कैसे छूती थीं हमारी ठुड्ढियाँ बार-बार
ये रस ये मिठास और कहाँ से पाया हमने

बिकना है जल्दी-से-जल्दी इन आमों को
झटके में टूट आयी है पत्तियाँ भी
इन्हें बिकना नहीं है
पर ख़रीदार की आँखों को ताज़गी दे रही हैं पत्तियाँ
आमों को और भी क़ीमती बना रही हैं पत्तियाँ