आरती 2 / शब्द प्रकाश / धरनीदास
237.
श्री गुरुदेवकि आरति कीजै। गगन मंडल अमृत रस वीजै।
तीन लोक प्रगटित जकि माया। सब घट जेति सरूप समाया॥
मन मानो मूरति अविनासी। उलटो कमल छुटो चौरासी॥
देखो हृदय समुझि सब कोई। जापर दया भया गुरु सोई।
धरनी चहुँ युग प्रगट पुकारा। गुरु के शब्द होय निस्तारा॥1॥
238.
श्री गुरुदेव कि आरती वारी मिटि भये मिमिर उदय उँजियारी।
योग युक्ति जप तप नहि कामा। सहजै सुमिरों कर्त्ताराम।
सो जन काहे को तीरथ धावै। सकलतिरथ घट सुघट नहावै।
ब्रह्मादिक जत कहिये देवा। सो सब निरिखि निरंतर सेवा।
तजि दुर्मति भजु साधु कि सरनी। मंगल आरति गावै धरनी॥2॥
239.
मंगल आरति पद निर्वाना। सब घट पूरन पुरुष पुराना॥
आरति ब्रह्मा विष्णु महेशा। शारद लक्ष्मी गौरि गनेशा॥
पुनि आरति चौविस अवतारा। तैंतिस कोटि देवगन तारा॥
संत अनंत ऋषि मुनि वेदा। तिनकी आरति करु निरभेदा॥
सब जीवनते वैर विसारा। धरनी सहजै भौ निस्तारा॥3॥
240.
आरति रामनामको करिये। सहज अनन्द द्वन्द भव तरिये।
जासु नाम निश्चल धु्रव राऊ। जासु नाम प्रह्लाद बचाऊ।
जापै नामदेव मन थीरा। जासुनाम गहु दास कबीरा।
जासु नाम गोरख गरु आई। जासु नाम सब संत सहाई।
जासु नाम युग युग परकासा। धरनी धरै तासु विश्वासा॥4॥
241.
वहाँ करि आरति हो, जँह अरध उरध अस्थाना।
घरि घरि पल पल निसिवासर नित, सहजहिँ धरि धरि ध्याना॥
आदि पुरुष जँह रहत निरंतर, तँह ना विधि व्यवहारा।
ताकी जोति सकल घट वरतै, जग मग दसम दुवारा॥
जँह नहि दूजा देवा देइ, पीर पैगम्बर सोई।
तीरथ मंडप मका न महजिद, राति दिना नहि होई।
सोइ गुरु परि राम रहिमाना, देखहु हृदय पुरुष सब नारी॥
जाहि मिले चौविस अवतारी, ताहि मिले संता।
धरनी चरन शरन मन वच क्रम, जानि भजो भगवन्ता॥5॥
242.
मन आलसि करु आरति, जाको पार ब्रह्म है नाम।
काया थार दया दीपक मँह, तृष्णा तेल सुढारि।
वाती पाटी कपट को फारी, ज्ञान अगिन पर वारी॥
अच्छत मन अभिमान मारिके, तोरो तामस पाती।
चितको चँवर सुढारि ढारिये, प्रभु पर दिन अरु राती॥
प्रीतिको पहुप प्रान पाँचो को, संयम चन्दन गारी।
धोखा धूप देइ घंटारव, साँच शब्दको भारी॥
बाजन करि पाँचो वाउन को, भोग भक्ति कर भाऊ।
धरनीश्वर विसास धरनी करि, आनंद आरति गाऊ॥6॥
243.
मल पव क्रम मोरे रामको सेवा। सकल लोक देवन को देवा॥
बिनु जल जल भरि भरि नहवाओं। बिनु आसन आसन पधराओँ॥
बिनु चंदन चंदन घँसि लाआँ। बिनु भय सुंदर धूप धुपाओँ॥
बिनु घंटा घरि घंट बजाओ। बिनहि चँवर शिर चँवर डोलाओ॥
बिनु आरति अछि आरति बारो। धरनी तँह तन मन धन वाराँ॥7॥
244.
रामप्रताप युगो युग जागै। देत अभयपद विलँव न लागै॥
बालक धु्रव प्रहलाद कुमार। अजहुँ अभय पद वाँक न बार॥
नामदेव अरु दास कबीर। गउव जियाये तोरि जँजीर॥
जँह जँह राम-प्रताप सहाय। तँह तँह कल वल छल न वसाय॥
राम प्रताप मिटो दुख द्वंद। आरति करहि विनोदानंद॥8॥