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आर्त्त पुकार / संतोष श्रीवास्तव

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मैंने अरमानों के कुछ बीज
अपनी मुट्ठी में दबा रखे हैं
और आतुरता से प्रतीक्षा कर रही हूँ
मौसम की दस्तक का

चारों ओर नि: शब्द सन्नाटा है
पानी की एक बूंद तक नहीं
आषाढ़, सावन, भादो
भरोसा दिलाते रहे
कहीं धुनके हुए
कहीं सिलेटी बादलों से
हवा संग छितराते रहे
पर बरसे नहीं

सूखी, पपड़ाई धरती
करती रही प्रतीक्षा
अपने प्रियतम बादलों के
बरसने का
कोख में दबे बीजों के
झुलस जाने की आशंका
धरती का कलेजा
कर रही चूर-चूर

आता तो रहा है अब तक
मौसम सिलसिलेवार
इस बार क्या हुआ
मौसम की आवाजाही को

बूढ़ी धरती की आर्त्त पुकार
असीम व्याकुलता
मृत हुआ परिवेश
फिसल रहे हैं
मेरी उंगलियों की रंध्रों से
अरमानों के बीज

कि जैसे मृत हुई धरती
मेरे अंदर समा रही है
कि जैसे मैं भी
संज्ञाशून्य हो रही हूँ
कि जैसे लीलने को
आतुर है समग्र
बिगड़ा बौखलाया
प्रकृति का संतुलन