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आलोचना एक 'अनचाहा आनंद' देती है / चंदन द्विवेदी

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मुझे खबर हो न हो प्रशंसकों की
मैं तो रखता हूँ अपने आलोचकों पर नज़र
क्योंकि आलोचना में विस्मय नहीं होता
आलोचना में होता है 'अनचाहा आनन्द'

ब्रह्मानंद सहोदर सा लगता है मुझे आलोचना का 'रस'
ज्वालाओं के अपरिमित 'आवेग' लिए आती है आलोचना
जिसमें जलकर भस्म होती है आलोचक की सारी कुंठाएं
और प्रदीप्त होता है शाश्वत ज्ञान,नष्ट नहीं होती है मर्यादा

लेकिन इसका एक और पक्ष है सत्य और अकाट्य
आलोचना से 'आलम्बन' शुद्ध होता है, 'आश्रय' नहीं
सच है यह जब आलम्बन मुस्कुराता है,
तब आश्रय 'तिलमिलाता' है।

लेकिन विचलित नहीं होता आश्रय और यही होती है 'एक अवस्था'
जहां फिर आती है आलोचक के मन में विकृति
आलम्बन को समूल नष्ट करने का ख्याल
लेकिन मित्र ! न आलोचना नष्ट होती है न आश्रय, न आलम्बन
सब कुछ रह जाता है यथावत्
इसीलिए तो आलोचना को अनचाहा आनंद कहा मैंने

आलोचना विजय पराजय से परे होती है
शुद्ध, तार्किक और सच की कसौटी पर खरी
और आलोचना की अग्नि परीक्षा से
अदग्ध निकलती है शीतलता की सीता
जिसमें दग्ध हो जाती है मलिन कुंठाएं
फिर मिलता है आनंद ही आनंद
तो ऐसे आनंद सागर में कौन नही लगाना चाहेगा गोते

और मैं जी रहा हूँ उस आनंद को
आप करना मेरी आलोचना
क्योंकि आलोचक मेरा देवता,आलोचना उसका कर्तव्य
और आलोचना मेरा सौभाग्य
इन सब के बीच आनंद का रसास्वादन करते है सुधीजन
क्योंकि आलोचना उत्सव लाती है सबके लिए
साधारणीकरण के सिद्धांत की तरह
अनचाहे आनंद से लबरेज़ हो जाता है
और फिर याद आती है यह बात
क्षणे क्षणे यन्नवताम् उपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः
तुरपाई