भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवाज़ के हमराह सरापा भी तो देखूं / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आवाज़ के हम राह सरापा भी तो देखूँ
ए जान ए सुखन मैं तिरा चेहरा भी तो देखूँ

सहरा की तरह रहते हुए थक गयी आँखें
दुःख कहता है अब मैं कोई दरिया देखूँ

ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे
अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूँ

अब तक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा
अब मैं तिरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूँ

अब तक जो सराब आये थे अनजाने में आये
पहचाने हुए रास्तों का धोखा भी तो देखूँ