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आवाज़ / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
दूर से आती है कोई आवाज़
कोई आकार बनाने की कोशिश करता हूँ
झरती है रात की ख़ामोशी
झरती है ओस
अदृश्य
फिर जाती है पेड़ पर नज़र
ऊपर आकाश तना है
दूज के चाँद
शीत के सितारों से भरी
एक सुरम्य रहस्यमयता में
कोई परिचित धुन तिरती है
हवा के पंखों पर सवार
शायद यही है आकार
दूर से आती आवाज़ का
शायद यही है रंग
यही है नाम
आज रात
ख़ामोशी के अनिर्धारित समय में
अनाकार अदृश्य अबूझ
मेरा स्वप्न
शायद यही है ।