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आविर्भाव / रामनरेश पाठक
Kavita Kosh से
बगीचों में जग रही है
कृष्णचूड़ा
निकटतम अवस्त्रा प्रकृति
तंद्रिल नृत्यरता है
संस्कृति
हथकरघे पर किकुरी लगाए
सो गए हैं लोग
चांदनी लोकगीत गाती है
एक अंधा गहरा कुआँ बुलाता है
उपासना के
ऋक, साम, यजु:, अथर्व स्वरों में
कुछ ढूंढते फिर रहे हैं पृथ्वीपुत्र
अभी-अभी उठेगा एक ज्ञान
और
एक नया दर्शन जन्म लेगा