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आशाओं-अभिलाषाओं का चंचल झलमल बात रे / श्यामनन्दन किशोर

आशाओं-अभिलाषाओं का चंचल, झलमल वात रे!
मन क्यों मेरा डोल रहा है ज्यों शीशम का पात रे!

दूर नगर है, कठिन डगर है,
धूप-छाँह की माया!
है मालूम न किस इंगित पर
फिर भी बढ़ता आया!

कैसे पहुँचूँ नियत समय पर पास तुम्हारे साँवरे!
पिच्छल करती मंजिल का पथ नयनों की बरसात रे!

प्राणों के पाहुन तन की
वंशी पर सरगम साध रहे हैं,
साँसों के दो निठुर पहरुए
जीवन की कस बाँध रहे हैं।

क्यों उद्विग्न रहा करता मन, हाय समझ यह बात भी-
विरह-पंक में खिलता महमह मधुर मिलन बरसात रे!

सूख सरोवर जाते, लेकिन
एक बूँद की प्यास न जाती!
आँसू की रिमझिम फुहियों से
यौवन की लतिका मुस्काती!

बन्दनवार सजे सपनां के, चौमुख दिए हुलास के,
इच्छा की फुलझड़ियों से शोभित उठती बारात रे!

(12.2.54)