भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आशिक़ की कहीं चश्मे-दुई बन न रहूँ मैं / सौदा
Kavita Kosh से
आशिक़ की कहीं चश्मे-दुई बन न रहूँ मैं
मैं रख़्न-ए-किश्ती हूँ, रोऊँ और बहूँ मैं
प्यारे न बुरा मानो तो एक बात कहूँ मैं
किस लुत्फ़ की उम्मीद पे ये जौर सहूँ मैं
ये तो नहीं कहता हूँ कि सचमुच करो इंसाफ़
झूठी भी तसल्ली हो तो जीता तो रहूँ मैं