आशीष के दो चुम्बन / सुरेन्द्र डी सोनी
नन्हें-से चाँद की मुट्ठी में
भरकर
आशीष के दो चुम्बन
पुरुषार्थ की देवी ने
भेजा उसे मेरे पास...
यह कहकर
कि ज़ल्दी जा
चुक रही है पूँजी
मेरे एक प्रिय की
और यह भी
कि ज़ल्दी आना
बारिश के दिन हैं...
चाँद जब चला
तो नाच रही थीं
परियों की छोटी-छोटी बालाएँ
आसमान के सतरंगे चौक में -
चाँद ठिठका
पर रुका नहीं...
हवा में
कुछ बदमिज़ाज बादल जो तैर रहे थे...
मेरे घर की छत पर
बिखर गई झीनी रोशनी..
मुट्ठी भींचे उतरा
एक नंग-धड़ंग शहज़ादा -
मुझे ज़ल्दी जाना है
बालाओं के नाचने के दिन हैं...
उसने खोली मुट्ठी
और मुस्कुराता हुआ बोला -
लो चूम लो हथेली
यही कहा है माँ ने...
होंठों ने पढ़े
आशीष के दो चुम्बन...
साँसों की धूनी तक
उतरा सम्बल ही सम्बल
कि एक बिजली कड़की
एक बादल फटा...
सब-कुछ लुट गया
ऐसा लगा...
जाते हुए चाँद की आवाज़ सुनाई दी -
मत घबराना चुनौतियों से...
मैं कल फिर आऊँगा !