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आशी:(वसंत का एक दिन) / अज्ञेय
Kavita Kosh से
फूल काँचनार के,
प्रतीक मेरे प्यार के!
प्रार्थना-सी अर्धस्फुट काँपती रहे कली,
पत्तियों का सम्पुट, निवेदिता ज्यों अंजली।
आए फिर दिन मनुहार के, दुलार के
-फूल काँचनार के!
सुमन-वृंत बावले बबूल के!
झोंके ऋतुराज के वसंती दुकूल के,
बूर बिखराता जा पराग अंगराग का,
दे जा स्पर्श ममता की सिहरती आग का।
आवे मत्त गंध वह ढीठ हूल-हूल के
-सुमन वृंत बावले बबूल के!
कली री पलास की!
टिमटिमाती ज्योति मेरी आस की
या कि शिखा ऊध्र्वमुखी मेरी दीप्त प्यास की।
वासना-सी मुखरा, वेदना-सी प्रखरा
दिगंत में, प्रांतर में, प्रांत में
खिल उठ, झूल जा, मस्त हो,
फैल जा वनांत में-
मार्ग मेरे प्रणय का प्रशस्त हो!