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आश्चर्य न हो कहीं / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
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कितनी विडम्बना है
वे भी कर रहे हैं
इन दिनों समानता की बात
असमानता के टीले पर बैठकर
बोते रहे बीज जो नफरतों की
काटते रहे फसल
स्वार्थ और जिस्मानी फितरतों की
इससे बड़ी विडंबना
क्या होगी और भला कि
जो नींव खोदते रहे भेद की
उठाते रहे दीवाल
रद्दा-दर-रद्दा अलगाव की
वे भी बात कर रहे हैं एकता की
आश्चर्य न हो कहीं
तो समझना चाहिए सच आज का
यह युग आभासी है
यह समय विरोधाभासी है
जो कारण अकारण लगे हैं
समझाने में समय का यथार्थ
सात्विक नहीं सत्यानाशी हैं।।