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आश्चर्य / छगनलाल सोनी
Kavita Kosh से
भीष्म नहीं चाहते थे
परिवार का बिखराव
कृष्ण नहीं चाहते थे
एक युग की समप्ति
धृतराष्ट्र नहीं चाहते थे
राज-पतन
द्रौपदी नहीं चाहती थी-
चीर हरण।
इसके बावजूद
वह सब हुआ
जो नहीं होना था
आज हमारा न चाहना
हमारी चुप्पी में
चाहने की स्वीकृति ही तो है
तालियों से झर रही है शर्म
उतर रहे हैं कपड़े
और देख रहे हैं हम
आश्चर्य की शृंखला में
जुड़ते हुए अपने नाम।