आश्वस्ति / सपना भट्ट
मन की धुंधलाई स्मृति में
खेत से लौटी क्लान्त माँ का बेडौल पेट उभरता है।
किसी उदास कातिक में
मैं अपने जन्म का उत्सव
रुदन में बदलते देखती हूँ।
बुढ दादी की कांपती हुई आवाज़ आती है
ये रां! फीर बिटुल ह्वे ग्याई।
निष्प्राण माँ की आंखों में ममत्व नहीं
शोक पसर जाता है।
पोते की प्रतीक्षा में पगलाई दादी बड़बड़ाती है
तेरा नसीब फिर से फूट गया रे परकास!
और यह भी कि
सुख वाली डाक
ईश्वर हर पते पर नहीं भेजते।
तीन बहनों में बिचली होना भी
क्या मुसीबत है!
मुझे कभी नहीं मिले
नए जूते, यूनिफार्म और किताबें।
दीदी से मुझ तक आते आते
उनकी नवेली सुगंध, सीलन में तब्दील हुआ चाहती थी।
दोहराव की निरन्तरता का यह शोक
अल्हड़पन में मन को ही नहीं
अस्थियों तक को गलाता था।
रुंधे कंठ में अबोध कामनाएँ सिसकती थीं।
करुणा उपज कर स्वयं पर ही खर्च हो जाती थी।
अभावों का यह दोहराव मुझ पर उम्र भर बीता।
अक्तूबर फिर चढ़ आया है
इन दिनों स्वप्न में फिर अपनी
सद्य प्रसवा माँ का कुम्हलाया मुख देखती हूँ।
घबरा कर अपनी साँस टटोलती हूँ।
आश्वत होती हूँ कि मैली-सी एक गुदड़ी में
एक निर्दोष हलचल अभी ज़िंदा है।
बरसों पहले बीते उस कातिक से भागती हुई
मैं अपने वर्तमान से टकरा कर कराहती हूँ
कि तभी बेटी माथा सहला कर "माँ" पुकार लेती है।
आज अनुभव से कह सकती हूँ कि
एक बेटी की माँ होना भी
कोई कम बड़ी आश्वस्ति नहीं।
अपनी बेटी को चूमते हुए चाहती हूँ कि कहूँ
"तुम नाहक कमज़ोर पड़ी मेरे होने से माँ"।
मैंने बेटी जन कर वह जाना
जो तुमने समझा ही नहीं।