भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आश्वासन / शशि पाधा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विदा की वेला में सूरज ने
धरती की फिर माँग सजाई
तारक वेणी बाँध अलक में
नीली चुनरी अंग ओढ़ाई
नयनों में भर सांझ का अंजन
हर सिंगार की सेज बिछाई
और कहा सो जाओ प्रिय
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।

भोर किरण कल प्रात: तुझे
चूम कपोल जगाएगी
लाल गुलाबी पुष्पित माला
ले द्वारे पर आएगी
पुनर्मिलन के सुख सपनों की
आस में तू शरमाएगी
उदयाचल पर खड़ा मैं देखूँ
तू कितनी सज जाएगी
पलक उठा तू मुझे देखना
मैं किरणों में मुसकाऊँगा ।
कल फिर लौट के आऊँगा ।

दोपहरी की धूप छाँव में
खेलेंगे हम आँख मिचौली
डाल-डाल से पात-पात से
छिपकर देखूँ सूरत भोली
प्रणय पुष्प की पाँखों से तब
भर दूँगा मैं तेरी झोली
किरणों के रंगों से हम तुम
खेलेंगे तब प्रीत की होली

दूर क्षितिज तक चलना संग संग
नयनों में भर ले जाऊँगा
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।
मैं कल फिर लौट के आऊँगा ।