आश पर विश्वास पर दुनियाँ टिकी है / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
आश पर, विश्वास पर दुनिया टिकी है।
मानता हूँ आज काली रात है यह
और केवल शून्य का ही साथ यह
चाँद ने भी आज खींचे हाथ अपने
नींद भी आती नहीं, आते न सपने
किन्तु पूरब में क्षितिज पर आँख मेरी
देखती है-स्वर्ण की रेखा खिंची है।
आश पर, विश्वास पर दुनिया टिकी है॥1॥
घास पर जो झलमलाती गिरपड़ी है
कौन कहता है कि मोती की लड़ी है।
‘ओस’, ‘शबनम’ ही समझता है उसे जग
चल रहा है रख उसी पर निर्दयी पग।
किन्तु किरणें ही करेंगी मोल इसका
क्योंकि वह उनके करों में बिक चुकी है।
आश पर, विश्वास पर दुनिया टिकी है॥2॥
ग्रीष्म के दिन आज तपता सूर्य भीषण
जल रहा नभ से धरा तक एक कण-कण।
आज सरिता का हृदय भी फट रहा है,
लपट से यह अवनि-अम्बर पट रहा है,
‘किन्तु वर्षा आ रही’ रवि-रश्मियों ने
बात सागर की तरंगों पर लिखी है।
आश पर, विश्वास पर दुनिया टिकी है॥3॥
आज वृक्षों का विभव सब लुट चुका है
पक्षियों का घोंसला तक मिट चुका है।
हैं पड़ी सूनी चमन की क्यारियाँ ये
हैं खड़ी सूनी इधर अमराइयाँ ये।
किन्तु दक्षिण का पवन बह कह रहा यह
‘आज पतझड़ कल बहार बसंत की है।’
आश पर, विश्वास पर दुनिया टिकी है॥4॥