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आसक्ति / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
भोर होते _
द्वार वातायन झरोखों से
उचकतीं-झाँकतीं उड़तीं
मधुर चहकार करतीं
सीधी सरल चिड़ियाँ
जगाती हैं,
उठाती हैं मुझे!
रात होते
निकट के पोखरों से
आ - आ
कभी झींगुर; कभी दर्दुर
गा - गा
सुलाते हैं,
नव-नव स्वप्न-लोकों में
घुमाते हैं मुझे!
दिन भर _
रँग-बिरंगे दृश्य-चित्रों से
मोह रखता है
अनंग-अनंत नीलाकाश!
रात भर _
नभ-पर्यंक पर
रुपहले-स्वर्णिम सितारों की छपी
चादर बिछाए
सोती ज्योत्स्ना
कितना लुभाती है!
अंक में सोने बुलाती है!
ऐसे प्यार से
मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा - इतनी मनोहर
छोड़ दूँ कैसे?