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आसपास / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
महुए से उतरकर
हवा लड़खड़ाई है
नशा तारी है दूर तलक
घोसलों में दुबकी
चिड़ियाँ चहचहाई हैं
कोयल की टेर से
मंजरी कसमसाई है
झील की सतह से
सतरंगी
इंद्र धनुष उठा
बहकी हैँ बदलियाँ
सोए अरमान सुगबुगाये हैं
मन के वीरानों में
चुपके से बहार आई है
जानती हूँ
तुम यहीं कहीं हो
आसपास