भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ / सिदरा सहर इमरान
Kavita Kosh से
आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ
यानी तक़दीर सितारे से उठा सकती हूँ
अपने पाँव पे खड़ी हूँ तुझे क्या लगता था
ख़ुद को बस तेरे सहारे से उठा सकती हूँ
आँखें मुश्ताक़ हज़ारों हैं मगर सोच के रख
तेरी तस्वीर नज़ारे से उठा सकती हूँ
राख हो जाए मोहब्बत की हवेल पल में
इक तबाही में शरारे से उठा सकती हूँ
मैं अगर चाहूँ तो जीने की इजाज़त देकर
ज़िंदगी तुझ को ख़सारे से उठा सकती हूँ
इस्म पढ़ने का इरादा हो तो फ़ुर्सत में ‘सहर’
मैं तुझे दिल के शुमारे से उठा सकती हूँ