भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमान पर उगी धुंध है / चित्रांश वाघमारे
Kavita Kosh से
आसमान पर उगी धुंध है
और उसे मैं छांट रहा हूँ ।।
सदियाँ गुज़र गयी जो ढोते
खुद पर ऐसा बोझ रहा हूँ,
हूँ अपने ही इंतज़ार में
अपने को ही खोज रहा हूँ ।
खुद से जो खुद की दूरी है
धीरे-धीरे पाट रहा हूँ ।।
ठीक-ठीक तो पता नहीं है
मगर सुना है, यहीं सुबह है,
यहीं धुंध के पार कहीं पर
छिपी हुई चम्पई सुबह है ।
मैं हरकारा हूँ सूरज का
किरणों के ख़त बाँट रहा हूँ ।।
निश्चित ही कुछ उजली होगी
धूसर सी काया वितान की,
छोटे-छोटे दीप करेंगे
दूर समस्या दिवसमान की ।
मैंने इक सूरज सिरजा है
मैं उजियारा कात रहा हूँ ।।