धूप बेर के झाड़ों के नीचे सोने के
रंग की नहीं हुई है अभी तक । बेर-बरन
छाँह छाँह बीच सो रही । तिथि से तो नीम्बू
को पक जाना था अब तक । पर्व से धूप को
नीम्बू के छिलके की तरह भरना था गन्ध
और स्वाद से । दूर से देखने पर नदी
दर्पण सी चमकती है मगर निकट से नदी
शीतल और शान्त बह रही है । सोने के
गहनों-सी सूखी डालें झुकी जल पर, गन्ध
से भरी है हवा; तराशे स्फटिक के बरन-
वाली । धूप-सी खालवाले मृग धूप को
खाल समझ ओढ़े हैं । चिड़ी कुतरती नीम्बू ।